गाँवों-कस्बों की ज़िंदगी में झाँकतीं अचल मिश्रा (Achal Mishra) की फ़िल्में : अमेय कान्त

अचल मिश्रा (Achal Mishra) उन निर्देशकों में से हैं जिन्होंने बहुत कम समय में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. कुछ समय लंदन फ़िल्म स्कूल में बिताने के बाद अचल ने लंदन में रहते हुए फ़िल्मों को बहुत करीब से देखा-समझा. उनकी फ़िल्मों में एक ख़ास तरह का ठहराव होता है जहाँ रुककर दर्शक उनकी फ़िल्मों की कहानी और परिवेश में गहरे तक उतर जाता है. अचल ने मेघना गुलज़ार की फ़िल्म ‘तलवार’ के साथ बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर अपना करियर शुरू किया था. बाद में उन्हें पहचान मिली 2019 में आई मैथिली भाषा की उनकी फ़िल्म ‘गामक घर’ (गाँव का घर) से. इस फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफ़ी आनंद बंसल ने की थी जिन्होंने बाद में भारत की ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त डॉक्यूमेंट्री ‘एलीफ़ैन्ट व्हिस्परर्स’, वेब सीरीज़ ‘गुल्लक’ समेत कुछ और फ़िल्मों में भी काम किया.

‘गामक घर’ (Gamak Ghar) में रंगों और फ़्रेम के साथ जो प्रयोग किए गए उन्होंने इस फ़िल्म की खूबसूरती को और बढ़ा दिया. इस फ़िल्म में हम गाँव के एक पुश्तैनी घर को तीन टाइम फ़्रेम में देखते हैं. फ़िल्म की शुरुआत में 1998 का समय दिखाया गया है जब इस घर में परिवार के लोग बच्चे के जन्म के उत्सव पर इकट्ठा हुए हैं. इस समय को दिखाने के लिए कैमरे का एस्पेक्ट रेश्यो (चौड़ाई और ऊँचाई का अनुपात) खास तौर पर 4:3 रखा गया था जो उस समय के टीवी प्रसारण में इस्तेमाल होता था. रंगों का सैचुरेशन भी 90 के दशक के रंगीन फ़ोटोग्राफ़ की तरह रखा गया जो उस समय का और गहराई से एहसास करवाता है. यह वही समय था जब मोबाइल नहीं आया था, वीसीआर पर फ़िल्में देखी जाती थीं और रोल वाला कैमरा कई घरों में मिल जाता था. फिर फ़िल्म में समय बदलता है और हम देखते हैं कि 2010 का समय आ चुका है. दृश्य का एस्पेक्ट रेश्यो और रंगों का सैचुरेशन भी बदल जाता है. फिर कुछ समय के बाद फ़िल्म हमें 2019 का समय दिखाती है. इन दो दशकों के दौरान कहानी के किरदार घर में आते-जाते रहते हैं. लेकिन हम देखते हैं कि घर हर बार और ज़्यादा अकेला होता जा रहा है. घर के इस अकेलेपन के साथ हम भी अकेले हो जाते हैं. अचल की इस फ़िल्म की यही खासियत है. इसमें घर खुद एक किरदार है. वह पूरी फ़िल्म में हमसे एक मौन संवाद करता रहता है. और आखिर में हम इस किरदार को गहराते अँधेरे में गुम होते हुए देखते हैं.

अचल की दूसरी फ़िल्म ‘धुईं’ (Dhuin) 2022 में आई. यह फ़िल्म कस्बे के उन युवाओं के सपनों की बात करती है जो कुछ अलग करना चाहते हैं. उनके ये सपने बहुत साफ़ नहीं हैं. पंकज निम्न मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का है जो एक छोटे से कस्बे में रहता है. वह एक स्थानीय थिएटर ग्रुप में काम करता है और तकदीर आज़माने के लिए मुंबई जाना चाहता है. उसके ग्रुप में उन लोगों का आना-जाना भी लगा रहता है जिन्हें  बाहर अच्छे मौके मिलने लगे हैं. वह एनएसडी से सीखकर आए लड़कों  के संपर्क में भी आता है जो पंकज त्रिपाठी से लेकर अब्बास कियारोस्तामी की फ़िल्मों पर बातचीत करते हैं. धीरे-धीरे उसे एहसास होता है कि यह राह उसके लिए इतनी आसान भी नहीं है. साथ ही उसे कुछ मौकों की दस्तक भी सुनाई देती है. अपनी माँ और पिता के साथ उसका पारिवारिक जीवन भी है जिसकी मुश्किलें अपनी जगह हैं. आगे सबकुछ एक धुंध (मैथिली में ‘धुईं’) की तरह है. इस फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफ़ी भी आनंद बंसल ने ही की थी. कुछ चीज़ें फ़िल्म में संयोग से आईं लेकिन बहुत सहज ढंग से फ़िल्म का हिस्सा हो गईं.

अचल के ही प्रोडक्शन ‘अचलचित्र’ (Achalchitra) से हाल ही में एक और फ़िल्म आई है, ‘पोखर के दुनु पार’ (Pokhar ke dunu paar). इस फ़िल्म का निर्देशन पार्थ सौरभ ने किया है. यह फ़िल्म भी अचल की पिछली फ़िल्मों की तरह बिहार के दरभंगा के आसपास की कहानी कहती है जिसमें मुख्य भूमिका इस बार भी अभिनव झा ने ही निभाई है. भागे हुए प्रेमी लॉकडाउन के समय दिल्ली से अपने कस्बे में लौट आए हैं. लड़के को कोई ठीक-ठाक काम नहीं मिला है. ये लोग एक पार्टी के दफ़्तर में अस्थायी रूप से टिके हुए हैं. लड़के के मन में भविष्य को लेकर कोई साफ़ योजना नहीं है लेकिन वह प्रेमिका को लेकर लापरवाह भी नहीं है. दूसरी तरफ़ उसके दोस्त हैं जिनके साथ उसका दिन गुज़र जाता है. लड़की पसोपेश में फँसी हुई है. वह न तो प्रेमी को छोड़ना चाहती है, न अपने परिवार को. उसके पिता उसे इसी शर्त पर वापस अपना सकते हैं कि वह लड़के का साथ छोड़ दे. लड़की को इस जीवन में बहुत ज़्यादा उम्मीदें दिखाई नहीं दे रही हैं. फ़िल्म इन दोनों के बीच के प्रेम और असल ज़िंदगी के खुरदुरेपन के बीच झूलती रहती है.

अचल की फ़िल्मों में नाटकीयता या ट्विस्ट जैसा कुछ देखने को नहीं मिलता. उनकी फ़िल्में इतनी सहज होती हैं कि हमें अपने आसपास की कहानी लगती हैं. इसमें वे जोख़िम भी बहुत लेते हैं. संवाद और परिवेश इतने अनौपचारिक लगते हैं कि दर्शक और पात्रों के बीच की दूरियाँ बहुत कम रह जाती हैं. यही चीज़ उनकी फ़िल्मों को खास भी बनाती है. ‘गामक घर’ के बाद की फ़िल्में कोविड महामारी के समय लगे लॉकडाउन में युवाओं की स्थिति को बहुत नज़दीक से दिखाती हैं. बहुत तसल्ली से फ़िल्में देखने वालों के लिए ये फ़िल्में एक ‘विज़ुअल ट्रीट’ की तरह हैं.

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8 Replies to “गाँवों-कस्बों की ज़िंदगी में झाँकतीं अचल मिश्रा (Achal Mishra) की फ़िल्में : अमेय कान्त

  1. एक निर्देशक की इधर आई फिल्मों पर अच्छी और उत्सुकता जगाती टिप्पणी। अमेय यह काम मुस्तैदी से लगातार करते रहे हैं। फिल्मों के कथानक और अभिनय पर तो ख़ूब बातें होती हैं लेकिन यहाँ अमेय जिस तरह कैमरे के एंगल और उसके प्रयोगों पर बात रखते हैं तो हमें उसके देखे जाने की इच्छा और बढ़ जाती है। बधाई अमेय….

  2. बहुत ही उम्दा लिखा है अमेय, आगे की निरंतरता के लिए अनन्त शुभकामनाएं।

  3. बहुत अच्छी रिव्यू है। फिल्मों को देखने की इच्छा जगाती हुई।
    इसी तरह से फिल्मों से रूबरू करवाते रहिए।
    बहुत बधाई।

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