Society of the Snow Hindi Review
स्पेनिश भाषा की फ़िल्म ‘सोसाइटी ऑफ़ द स्नो’ एक सच्ची घटना पर आधारित है. साल 1972 में उरुग्वे की रग्बी टीम और उनके समर्थकों ने चिली में होने जा रहे मैच में शामिल होने के लिए उरुग्वे एयर फ़ोर्स के एक विमान को किराए पर लिया. लेकिन बदकिस्मती से यह विमान एंडीज़ पहाड़ों के बीच एक ग्लेशियर में दुर्घटनाग्रस्त हो गया. दुर्घटना के बाद विमान में सवार 45 में से 29 यात्री बच गए थे. लेकिन अगले कुछ हफ़्तों में चोट लगने, बीमारी और हिमस्खलन के कारण धीरे-धीरे और लोग भी मारे गए. जिस जगह यह विमान गिरा, वहाँ दूर-दूर तक इंसानों का कोई नामो-निशान नहीं था. हर तरफ़ सिर्फ़ बर्फ़ थी और तापमान शून्य से कई डिग्री नीचे था. ऐसे में बचे हुए यात्रियों ने उम्मीद और अपनी हिम्मत के सहारे एक लंबा समय इस निर्जन इलाके में बिताया और अपनी जान बचाई. इस घटना पर पाब्लो विर्सी ने 2009 में ‘सोसाइटी ऑफ़ द स्नो’ नाम से एक किताब लिखी थी जिस पर 2023 में स्पेनिश निर्देशक जे. ए. बायोना (J. A. Bayona) ने इसी नाम से यह फ़िल्म बनाई.
जिस इलाके में विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ, वहाँ खाने के लिए कोई चीज़ नहीं थी. अपना खाने का सामान खत्म होने के बाद विमान के बचे हुए यात्रियों के पास ऐसी कोई चीज़ नहीं बची जिसे खाकर वे ज़िंदा रह सकें. कई दिनों तक भूखे रहने के बाद उनके पास एक ही चारा बचा कि वे मर चुके यात्रियों के शरीर का माँस खाकर ज़िंदा रहें. उस निर्जन इलाके में फँसे लोगों के इस समूह के अस्तित्व की शर्तें एक सभ्य समाज के मापदंडों से बिल्कुल अलग थीं. फ़िल्म हमें दिखाती है कि कई यात्री शुरुआत में इसके लिए तैयार नहीं होते. ज़िंदा बचे यात्री एक-एक करके सहमति देते हैं कि उनके मरने के बाद बचे हुए लोग उनके शरीर के माँस से अपना पेट भर सकते हैं. आखिरकार हर किसी के पास ज़िंदा रहने का यही एक रास्ता बचता है. यात्रियों के इस नैतिक द्वंद्व को फ़िल्म बहुत गहराई से दिखाती है.
कई दिनों तक नाउम्मीदी और मौसम की बेरहमी से गुज़रते हुए ये लोग मौत को कई बार बहुत करीब से देखते हैं. इन हालातों में भी ये लोग हँसने और खुश होने के मौके निकाल लेते हैं. इस बीच सरकार विमान को ढूँढ़ने की कई कोशिशें करती है लेकिन ऊँचे पहाड़ों में दूर-दूर तक फैले बर्फ़ के बीच उसे खोज पाना संभव नहीं होता.
कुछ लोग हिम्मत जुटाकर इस इलाके से बाहर निकलने और दुनिया से संपर्क करने की कोशिश करते हैं लेकिन हर बार उनके हाथ नाकामी ही लगती है. इस बीच उनके साथी यात्रियों के एक-एक करके मरने का सिलसिला चलता रहता है. फिर एक दिन किसी तरह इनमें से दो लोग दुर्गम बर्फ़ीला रास्ता पार करते हुए मानव बस्ती के करीब पहुँच पाते हैं और सरकार तक इनके बचने की खबर पहुँचती है. यात्रियों को बचाने की कार्रवाई शुरू होती है और 72 दिन तक बर्फ़ में रहने के बाद आखिरकार कुछ बचे हुए यात्री अपने घर लौट पाते हैं.
इन यात्रियों को लेकर हर कोई उम्मीद छोड़ चुका था. इतने दिनों के बाद इनकी लाशें मिल पाना भी गनीमत की बात थी. ऐसे में बचे हुए लोगों का घर लौट आना हर किसी के लिए चमत्कार से कम नहीं था. लेकिन ये बचे हुए लोग एक युद्ध लड़कर लौटे थे, ऐसा युद्ध जिसमें इन्होंने हर क्षण मौत को अपने बहुत नज़दीक आकर अपने ही किसी साथी को ले जाते देखा था. ऐसा युद्ध जिसने इन्हें एक ऐसे अपराधबोध से भर दिया था जो अब शायद जीवन भर उनके साथ रहने वाला था. इनके लिए ज़िंदा बच जाने का यह ‘चमत्कार’ बस एक संयोग था जिसने इन्हें चुन लिया था. जिन्हें नहीं चुना गया, वे नहीं लौट पाए. बचकर लौटने वाले यात्री फ़िल्म के अंतिम दृश्य में इस ‘चमत्कार’ के बाद खामोश हैं. उनके भीतर भी कुछ बर्फ़ की तरह जम चुका है.
यह फ़िल्म सर्वाइवल को काफ़ी करीब से दिखाती है. इसे देखते हुए 2015 में आई आलेहांद्रो इनार्रितु की फ़िल्म ‘रेवनेंट’ याद आती है जिसमें लियोनार्दो डिकैप्रियो ने इसी तरह के बर्फ़ीले इलाके में संघर्ष करके ज़िंदा बचे एक इंसान की भूमिका निभाई थी. उस फ़िल्म को भी दुनिया भर में सराहा गया और कई पुरस्कार मिले.
दुर्घटनाग्रस्त हुए विमान में सवार यात्रियों के पास एक कैमरा भी था जिससे वे कई मौकों पर तस्वीरें लेते रहे. इन तस्वीरों में दुर्घटना के बाद के कई पल कैद हुए. फ़िल्म के कई दृश्यों को बनाने में इन तस्वीरों की बहुत मदद मिली. शूटिंग सिएरा नेवादा और आसपास के इलाकों में की गई. वीएफ़एक्स ने दृश्यों को और प्रभावी बना दिया. स्पेन में ‘गोया अवॉर्ड्स’ फ़िल्मों के लिए दिए जाने वाले मुख्य पुरस्कार हैं. इस साल फरवरी में आयोजित इस पुरस्कार समारोह में ‘सोसाइटी ऑफ़ द स्नो’ तकरीबन हर श्रेणी में विजेता रही. इसे बाफ़्टा, गोल्डन ग्लोब और ऑस्कर पुरस्कारों में भी नॉमिनेट किया गया.
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रिलीज़ : 2023
कहाँ देखें : इस समय नेटफ़्लिक्स पर हिंदी डब में उपलब्ध
मूल भाषा : स्पेनिश
बजट : 6.5 करोड़ यूरो
निर्देशक : जे. ए. बायोना
कमाल ..कमाल की घटना हुई वह. उस पर लिखा जाना और फिल्म बनाना कितना आवश्यक कदम था.मनुष्य को अपनी सीमाओं का अहसास हो ..हर स्तर पर …यही काम करती है ऐसी कथाएं और फ़िल्में . समीक्षा पढकर फिल्म देखने का मन हो रहा है. बधाई Amey Kant
सही कहा आपने, दीदी. बहुत धन्यवाद!