क्रिस्टोफ़र नोलन (Christopher Nolan): ‘फ़ॉलोइंग’ से ‘ओपेनहाइमर’ तक (Part-1) : अमेय कान्त

Christopher Nolan Filmography Part One

“सपनों में मुझे बचपन से ही बेहद दिलचस्पी रही है. मुझे यह विचार हमेशा रोमांचित करता रहा है कि हमारा दिमाग, हमारी नींद के दौरान, किसी सपने के भीतर एक समूची दुनिया रचने में सक्षम होता है और हम ऐसा महसूस करने लगते हैं जैसे यह सच में कभी हुआ था…”

– क्रिस्टोफ़र नोलन, हॉलीवुड फ़िल्म निर्देशक

 

ब्रिटिश मूल के फ़िल्मकार क्रिस्टोफ़र नोलन उन निर्देशकों में से हैं जो एक प्रबुद्ध फ़िल्मकार होने के साथ-साथ बेहद प्रतिभावान स्क्रिप्ट राइटर भी हैं. हॉलीवुड के बेहतरीन निर्देशकों में वे अपनी अलहदा शैली के लिए जाने जाते हैं. उनकी फ़िल्में सपाट नहीं होतीं और दर्शक से एक ख़ास तरह की बौद्धिकता की माँग करती हैं. नोलन दर्शक को सीधी रेखा पर नहीं चलने देते और न ही फ़िल्म के दौरान कहीं सुस्ताने का मौका देते हैं. वे दर्शक के इर्दगिर्द कई समानांतर घटनाक्रमों का एक ऐसा ताना-बाना रचते हैं कि दर्शक एक बिल्कुल अलग एहसास के साथ फ़िल्म से बाहर निकलता है. फिर चाहे वह ‘ममेन्टो’ की दो टाइमलाइन पर एक साथ चलती कहानी हो, ‘इन्सेप्शन’ की स्वप्न के भीतर स्वप्न वाली अवधारणा, ‘द प्रेस्टीज’ की कभी जादू तो कभी विज्ञान गल्प लगने वाली कहानी हो या फिर ‘इंटरस्टेलर’ की अन्तरातारकीय दूरियों के बीच समय भिन्नता, हर बार दर्शक कभी हैरान रह जाता है, कभी ठगा सा महसूस करता है और कई बार ढेर सारे सवालों के साथ फ़िल्म से वापस लौटता है. यही नोलन की खासियत भी है, वे हर बार इसे बिना किसी दोहराव के एक नए अंदाज़ में हमारे सामने लेकर आते हैं और हमें चौंका देते हैं.

महज सात साल की उम्र में नोलन ने अपने पिता के कैमरे से शॉर्ट फ़िल्में बनाना शुरू कर दिया था. बाद में अंग्रेज़ी साहित्य और फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में शिक्षा लेते हुए भी उन्होंने कई शॉर्ट फ़िल्में बनाईं और कई में सहयोग भी किया. उनके यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में दाखिला लेने का एक बड़ा कारण भी यही था कि वहाँ फ़िल्म निर्माण के लिए सुविधाएँ उपलब्ध थीं. उन्होंने बेलिक बंधुओं के साथ एक डॉक्यूमेंट्री में सम्पादकीय सहयोग दिया जिसे आगे चलकर ऑस्कर के लिए नामांकित भी किया गया. उस दौरान बनाई गई उनकी एक शॉर्ट फ़िल्म ‘डूडलबग’ (1997) की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. इसमें एक आदमी अपने घर में छिपी हुई किसी कीड़े जैसी चीज़ को अपने जूते से मारने की कोशिश कर रहा है. बाद में पता चलता है कि वह चीज़ खुद उसी का लघु प्रतिरूप है जिसकी क्रियाएँ भी उसी के जैसी हैं. आख़िरकार वह उसे मारने में कामयाब होता है, लेकिन इस कामयाबी का अर्थ अंतिम दृश्य में उलझकर रह जाता है जब दर्शक देखते हैं कि इसी व्यक्ति का एक बड़ा प्रतिरूप भी है जो उसके साथ भी वही करने वाला है जो उसने अभी-अभी अपने लघु प्रतिरूप के साथ किया है. नोलन की आने वाली फ़िल्मों की आहट को उनकी इस ढाई मिनट की फ़िल्म में महसूस किया जा सकता है.

‘फ़ॉलोइंग’ का एक दृश्य

1998 में अट्ठाईस साल की उम्र में नोलन ने अपनी पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘फ़ॉलोइंग’ निर्देशित की. इस फ़िल्म को काफ़ी सराहा गया. ‘द न्यूयॉर्कर’ ने कहा कि इसमें हिचकॉक की क्लासिक फिल्मों की झलक दिखाई देती है. चूँकि यह नोलन की शुरुआती फ़िल्म थी, इसका सारा खर्च उन्हें अपनी तरफ़ से ही जुटाना पड़ा. इस फ़िल्म के दो साल बाद ही नोलन अपनी बेहद प्रयोगात्मक फ़िल्म ‘ममेन्टो’ लेकर आए जिसने उन्हें न सिर्फ़ एक प्रतिभावान फ़िल्मकार के रूप में स्थापित किया बल्कि दूसरे निर्देशकों से अलग भी लाकर खड़ा कर दिया.  ‘शॉर्ट टर्म मेमरी लॉस’ पर आधारित इस फ़िल्म पर हमारे यहाँ भी ‘गजनी’ नाम से पहले तमिल और फिर हिंदी में अलग-अलग फ़िल्में बनीं जो काफ़ी सफल साबित हुईं. हालाँकि आम भारतीय दर्शक को ध्यान में रखते हुए मूल पटकथा के स्ट्रक्चर को थोड़ा सरल रखा गया जो शायद ज़रूरी भी था. नोलन की ‘ममेन्टो’ दो अलग-अलग टाइमलाइन पर एक साथ चलती है. इसमें एक टाइमलाइन कलर्ड है जो खलनायक की हत्या के दृश्य से शुरू होकर दर्शक को एक के बाद एक पिछली घटनाओं के बारे में बताती है. दूसरी टाइमलाइन ब्लैक एंड व्हाईट है जो सीधे-सीधे आगे बढ़ती है. इसकी शुरुआत नायक के नींद से जागने से होती है और यह बड़ी ही ख़ूबसूरती से फ़िल्म के अंत से कुछ पहले कलर्ड टाइमलाइन के साथ जुड़ जाती है. नोलन द्वारा फ़िल्म के नायक की मानसिक स्थिति को दर्शकों के साथ ‘एम्पेथाइज़’ करने के लिए उपयोग की गई इस तकनीक को कई मेडिकल विशेषज्ञों ने भी काफ़ी सराहा और इसे इस तरह की मानसिक स्थिति का बेहद यथार्थपूर्ण और सटीक चित्रण बताया. हालाँकि इसे फ़िल्म विशेषज्ञों की मिली-जुली राय भी मिली. प्रख्यात फ़िल्म समीक्षक रॉजर इबर्ट ने कहा कि यह उन फ़िल्मों में है जिन्हें दूसरी बार भी देखा तो जा सकता है, लेकिन इससे फ़िल्म को सिर्फ़ प्लॉट के स्तर पर समझने में मदद मिलती है, यह दर्शक के फ़िल्म देखने के अनुभव को समृद्ध नहीं करता. इस फ़िल्म से जुड़ा एक और रोचक पहलू यह भी है कि इस पूरी फ़िल्म की शूटिंग सिर्फ़ 25 दिनों में पूरी हो गई थी. इस फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ कथानक के लिए गोल्डन ग्लोब तथा ऑस्कर में भी नामांकन मिला.

‘ममेन्टो ‘की टाइमलाइन समझाते हुए खुद निर्देशक नोलन

 

 ‘ममेन्टो’ की कामयाबी के बाद ‘ओशन्स’ सीरीज़ की फ़िल्मों के निर्देशक स्टीवन सोडरबर्ग ने नोलन को ‘इन्सोम्निया’ निर्देशित करने का मौका दिया जो 2002 में प्रदर्शित हुई. ‘ममेन्टो’ में जहाँ नोलन को इस बात का मलाल रहा होगा कि बहुत चाहने पर भी उन्हें मुख्य भूमिका के लिए ब्रैड पिट या ऐसा कोई और स्थापित कलाकार नहीं मिल पाया, वहीं अपनी इस तीसरी फ़िल्म में उन्हें अल पचीनो और रॉबिन विलियम्स जैसे दिग्गज कलाकारों को निर्देशित करने का मौका मिला. यह फ़िल्म भी उनकी पिछली फ़िल्मों की तरह काफ़ी सफ़ल रही. इसके बाद नोलन ने वार्नर ब्रदर्स के साथ ‘बैटमैन बिगिन्स’ (2005) को निर्देशित किया. बैटमैन जैसे सुपर हीरो को लेकर बनाई गई यह फ़िल्म सिर्फ़ सुपर हीरो के कारनामों से भरी न होकर इससे जुड़े कई मनोवैज्ञानिक पक्षों पर ज़्यादा बात करती थी. इसी शृंखला में नोलन ने आगे ‘द डार्क नाइट’ (2006) और ‘द डार्क नाइट राइज़ेस’ (2012) भी निर्देशित कीं.

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