ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्मों का दौर और राज कपूर : अमेय कान्त

राज कपूर एक ऐसा नाम हैं जिसके बिना भारतीय सिनेमा की कल्पना करना मुश्किल है. उन्होंने हिंदी सिनेमा को एक अलग पहचान दी, उसे नई दिशा दी. उनकी फ़िल्मों में मानवीय और सामाजिक मूल्य तो आए ही, कलात्मक पक्ष भी उतनी ही खूबसूरती से उभरकर आया. संगीत और सिनेमैटोग्राफ़ी के वे खुद अच्छे जानकर थे इसलिए बतौर निर्देशक उन्होंने अपनी फ़िल्मों में इन्हें बहुत महत्त्व दिया. उनकी फ़िल्मों के कई तरह के वर्गीकरण किए जा सकते हैं. मोटे तौर पर एक वर्गीकरण उनकी ब्लैक एंड व्हाइट और कलर फ़िल्मों में किया जा सकता है और उनकी ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्मों में एक फ़िल्मकार के तौर पर उनकी यात्रा को देखा जा सकता है. इन फ़िल्मों में उन्होंने प्रेम और सामाजिक ढाँचे की विडम्बनाओं को गहराई से दिखाया.

राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर की अपनी एक अलग पहचान थी. पृथ्वी थिएटर के माध्यम से उन्होंने देश भर में कई नाटकों की प्रस्तुति दी और फ़िल्मों में भी बेहद सफल रहे. राज कपूर अपने पिता के साथ थिएटर के प्रदर्शनों में काम करते रहे. इसके बावजूद राज कपूर को फ़िल्मों में सीधे हीरो की तरह दाखिल होने का फ़ायदा नहीं मिला. उन्होंने क्लैपर बॉय के तौर पर शुरुआत की और फ़िल्मों में धीरे-धीरे अपने पैर जमाए. राज कपूर की शुरुआती फ़िल्मों में ‘हमारी बात’, ‘नील कमल’, ‘दिल की रानी’ जैसी फ़िल्में रहीं जिनमें उन्होंने किदार शर्मा और कई अन्य निर्देशकों के साथ काम किया. इन फ़िल्मों में मधुबाला, कामिनी कौशल, सुरैया, देविका रानी जैसी अभिनेत्रियों ने उनके साथ मुख्य भूमिकाएँ निभाईं.

बतौर निर्देशक राज कपूर की पहली फ़िल्म थी ‘आग’ (1948) थी. इसके निर्माता भी वही थे और मुख्य भूमिका में भी. इसी फ़िल्म से उनके प्रोडक्शन हाउस ‘आरके फ़िल्म्स’ की भी शुरुआत हुई. इसकी हर फ़िल्म की शुरुआत में पृथ्वीराज कपूर द्वारा शिव आराधना करने का दृश्य दिखाया जाता था. बाद में आरके स्टूडियो में इसी मुद्रा में उनकी एक प्रतिमा भी स्थापित की गई. ‘आग’ में शशि कपूर ने राज कपूर के बचपन की भूमिका निभाई थी. नर्गिस ने पहली बार इस फ़िल्म में उनके साथ काम किया. शायद पिता के घुमंतू थिएटर का उनकी इस पहली फ़िल्म पर गहरा असर था. इसलिए इसके मुख्य पात्र ‘केवल’ को उन्होंने इसी तरह चित्रित किया जिसे बचपन से ही थिएटर के प्रति लगाव रहा और जो बाद में जाकर खुद का थिएटर शुरू करता है. एक दिन इस थिएटर में आग लग जाती है और केवल का चेहरा झुलस जाता है. फ़िल्म उसकी शादी वाले दिन से शुरू होती है और फ़्लैश बैक में चलती है. इस फ़िल्म में प्रेमनाथ ने भी अहम भूमिका निभाई थी. फ़िल्म का संगीत राम गांगुली ने दिया था. इसके गीत शमशाद बेगम, मुकेश, मोहम्मद रफ़ी आदि ने गाए थे. शमशाद बेगम का ‘काहे कोयल शोर मचाए रे’ और मुकेश का गाया ‘ज़िंदा हूँ इस तरह’ जैसे गीत आज भी सुने जाते हैं. जो एक बारात की धुन से शुरू होकर ग़म भरे गीत में बदल जाता है. हालाँकि राज कपूर की यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर खास सफल न हो सकी.

अन्य निर्देशकों के साथ कुछ और फ़िल्में करने के बाद राज कपूर ने 1949 में ‘बरसात’ फ़िल्म बनाई. फ़िल्म के लेखक रामानंद सागर थे. दो प्रेम कहानियों को लेकर बनाई गई इस फ़िल्म को दर्शकों ने काफ़ी पसंद किया. इस फ़िल्म के गीत भी बहुत लोकप्रिय हुए. शंकर-जयकिशन की जोड़ी ने इसी फ़िल्म के साथ अपने करियर की शुरुआत की. यह पहली फ़िल्म थी जिसके कुछ हिस्से कश्मीर घाटी में भी फ़िल्माए गए. इसी फ़िल्म से ‘आरके फ़िल्म्स’ के साथ लता मंगेशकर भी जुड़ीं. उन्होंने इस फ़िल्म में कई गीत गाए. फ़िल्म में ग्यारह गीत थे और सभी बेहद पसंद किए गए. ‘हवा में उड़ता जाए’, ‘पतली कमर है’, ‘बरसात में’, ‘मुझे किसी से प्यार हो गया’, ‘जिया बेक़रार है’ जैसे गीत आज भी लोगों की ज़ुबान पर चढ़े हुए हैं. राज कपूर की यह फ़िल्म बेहद सफल रही. शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी जैसे गीतकारों ने इसी फ़िल्म के साथ फ़िल्म इंडस्ट्री में अपना सफ़र शुरू किया और राज कपूर के साथ आखिर तक जुड़े रहे.

‘बरसात’ का एक दृश्य बाद में चलकर आरके फ़िल्म्स के लोगो में अमर हो गया. इसमें वायलिन पकड़े नायक के एक हाथ में पीछे की और झुकी नायिका है. बताया जाता है कि यह दृश्य और लोगो संभवतः फ़्रेंच चित्रकार प्रिनेट की पेंटिंग ‘द क्रूत्ज़र सोनाटा’ से प्रेरित था. राज कपूर की बेटी रितु नंदा ने अपने पिता पर लिखी किताब में इस फ़िल्म को लेकर एक जगह लिखा है, “इसका प्रसिद्ध प्रेम-दृश्य आधुनिक भारतीय सिनेमा में सर्वाधिक रोमांस से परिपूर्ण दृश्यों में से एक माना जाता है. इसमें दिखाए गए प्रेमावेश की गहनता हिंसात्मक है, परन्तु वह अपमान का अनुभव नहीं कराती, न ही यह विवादपूर्ण है, क्योंकि यह प्यार के उस रूप के प्रति गंभीर है, जो पवित्र है.”

साल 1951 में राज कपूर आरके फ़िल्म्स के बैनर तले ‘आवारा’ लेकर आए. ‘बरसात’ और ‘आवारा’ के बीच राज कपूर अन्य निर्देशकों के साथ कई फ़िल्मों में बतौर नायक काम करते रहे जैसे ‘सरगम’, ‘जान पहचान’, ‘बावरे नैन’ आदि. ‘आवारा’ एक विचार-प्रधान फ़िल्म थी. इसके केंद्र में मूल विचार यह था कि कोई भी इंसान जन्म से गलत रास्ते पर नहीं होता. उसे परिस्थितियाँ ऐसा बनाती हैं. इस फ़िल्म में राज कपूर की नायिका नर्गिस थीं. जज और नायक के पिता की भूमिका में पृथ्वीराज कपूर थे. इस फ़िल्म के लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास थे. अन्य कलाकारों में लीला चिटनिस, केएन सिंह थे. यहाँ भी राज कपूर के बचपन की भूमिका में शशि कपूर ही थे. ‘आवारा’ का संगीत भी शंकर-जयकिशन ने ही दिया था और गीत ‘बरसात’ की तरह शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी ने ही लिखे थे. फ़िल्म में दस गीत थे और सबके सब ज़बरदस्त लोकप्रिय हुए. फ़िल्म का शीर्षक गीत ‘आवारा हूँ’ तो भारत के अलावा दक्षिण एशिया के कई देशों में लोकप्रिय हुआ. रूस में तो यह हालत थी कि यह गीत वहाँ के राजनेताओं तक की ज़बान पर था. अन्य गीत जैसे ‘घर आया मेरा परदेसी’, ‘दम भर जो उधर मुँह फेरे’, ‘अब रात गुज़रने वाली है’ भी बहुत लोकप्रिय हुए.

‘श्री 420’ में राज कपूर और नर्गिस

‘आवारा’ को दुनिया भर में सराहा गया. कान्स फ़िल्म फ़ेस्टिवल में यह सबसे बड़े पुरस्कार (जिसे आज ‘पाम डोर’ के नाम से जाना जाता है) के लिए नामांकित हुई. इस फ़िल्म ने भारत में भी सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. यह उस समय की सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म भी बनी. टाइम मैगज़ीन ने भी इसे 2012 में दुनिया की सौ बेहतरीन फ़िल्मों की सूची में रखा. इस फ़िल्म के तुर्की और फिर ईरान जैसे देशों में रीमेक भी हुए. इसी फ़िल्म से राज कपूर के साथ सिनेमैटोग्राफ़र राधू करमाकर भी जुड़े जिन्होंने आगे जाकर आरके फ़िल्म्स की कई फ़िल्मों के लिए सिनेमैटोग्राफ़ी की जैसे ‘जागते रहो’, ‘श्री 420’, ‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘बॉबी’, ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’, ‘प्रेम रोग’, ‘राम तेरी गंगा मैली’ आदि. ‘आवारा’ का स्वप्न-दृश्य बहुत चर्चित हुआ था. इसमें तीन गीतों का सीक्वेंस था जिनमें स्वर्ग, नर्क और फिर स्वर्ग की परिकल्पना की गई थी. इस दृश्य के फ़िल्मांकन के बारे में राधू करमाकर अपनी किताब ‘कैमरा – मेरी तीसरी आँख’ में लिखते हैं कि इसे एक अधबने स्टूडियो में फ़िल्माया गया था जहाँ तब तक छत भी नहीं थी. राज कपूर घुटनों तक बादलों का प्रभाव पैदा करना चाहते थे. इसके लिए दृश्य में ड्राई आइस का इस्तेमाल किया गया. जब इसकी पहली बार प्रोसेसिंग की गई तो नतीजे बहुत ख़राब निकले. राधू करमाकर भी इससे बहुत परेशान हुए. बाद में उन्होंने खुद प्रोसेसिंग की और इस बार बेहतरीन नतीजे निकलकर आए. आज भी यह दृश्य हिंदी सिनेमा के अमर दृश्यों में गिना जाता है. बताया जाता है कि राज कपूर के कहने पर इस दृश्य को फ़िल्म में बाद में जोड़ा गया था. फ़िल्म के कुल बजट का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ़ इस दृश्य पर खर्च हुआ.

 

‘आवारा’ का स्वप्न दृश्य

आवारा के बाद राज कपूर अन्य निर्देशकों की कई फ़िल्मों में आए. आरके फ़िल्म्स ने 1953 में ‘आह’ का निर्माण किया जिसमें मुख्य भूमिका में राज कपूर, नर्गिस और प्राण थे. इसे इंदर राज आनंद ने लिखा और राजा नवाथे ने निर्देशित किया. ‘आह’ का दुखांत लोगों को पसंद नहीं आया. राज कपूर ने इसके अंत को बदला लेकिन इसे फिर से रिलीज़ नहीं कर पाए. यह फ़िल्म घाटे में ही रही. ‘आह’ के बाद राज कपूर ने अपने ही निर्देशन में रतन कुमार, नाज़ और डेविड को लेकर ‘बूट पॉलिश’ पर काम शुरू किया जो 1954 में रिलीज़ हुई. इसमें शुरुआत में कोई गाना नहीं था. राज कपूर को यह किसी डॉक्यूमेंट्री जैसी लगी और गानों को बाद में फ़िल्माकर उन्हें बाद में शामिल किया गया. फ़िल्म में डेविड के अभिनय की काफ़ी प्रशंसा हुई. फ़िल्म सफल रही. इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में राज कपूर ने लिखा, “इस फ़िल्म के ज़रिए मैं दिखाना चाहता था कि अनाथ और बेघर बच्चे सरकार के साथ हमारी भी ज़िम्मेदारी हैं.”

अगले ही साल राज कपूर ‘श्री 420’ लेकर आए. इस फ़िल्म ने भी ‘आह’ के नुकसान की भरपाई करने में काफ़ी मदद की. राज कपूर चार्ली चैपलिन से प्रभावित थे और यह फ़िल्म उन्हीं को सम्मान देते हुए बनाई गई थी. इसमें राज कपूर ने अपना गेटअप और भाव-भंगिमाएँ चार्ली की तरह रखी थीं. यह भारत की पहली फ़िल्म थी जिसमें ‘फ़ोर्स्ड पर्सपेक्टिव’ का इस्तेमाल किया गया. ‘प्यार हुआ इकरार हुआ है’ गीत के यादगार दृश्य में यही तकनीक इस्तेमाल हुई है जिसमें राज-नर्गिस छाते के नीचे खड़े हैं और रिमझिम बारिश के बीच पीछे दृश्य में दूर गाड़ियाँ चलती दिखाई दे रही हैं. इस फ़िल्म में राधू को फ़ोटोग्राफ़ी के लिए उनका पहला फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड भी मिला. यह फ़िल्म एक नौजवान लड़के के मुंबई आने के बाद की कहानी है जहाँ उसे अपनी डिग्रियों के बावजूद नौकरी नहीं मिल पाती. यह फ़िल्म महानगरों में अमीरों के एकाकी जीवन पर भी तंज थी. नायिकाओं के ‘विद्या’ और ‘माया’ जैसे प्रतीकात्मक नाम रखे गए. इस फ़िल्म ने वर्ग भेद को गहराई से दिखाया. शंकर-जयकिशन के संगीत में इस फ़िल्म के ‘मेरा जूता है जापानी’, ‘ईचक दाना बीचक दाना’ ‘मुड़-मुड़ के ना देख’, ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’ जैसे गीत काफ़ी लोकप्रिय हुए. मन्नाडे राज कपूर के लिए ‘आवारा’ में भी गा चुके थे. इस फ़िल्म में भी उनके गाए गीत काफ़ी पसंद किए गए. ‘रमैय्या वस्तावैया’ में मुकेश, मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ें दीं. इसके बाद राज-नर्गिस की जोड़ी एवीएम प्रोडक्शन्स की फ़िल्म ‘चोरी-चोरी’ में दिखाई दी. इस फ़िल्म के लिए शंकर-जयकिशन को श्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला. यह फ़िल्म बहुत सफल रही. इसके ‘ये रात भीगी-भीगी’, ‘आजा सनम’, ‘पंछी बनूँ’, ‘जहाँ मैं जाती हूँ’ जैसे गीत आज भी बहुत लोकप्रिय हैं. इसके सभी गीतों में राज कपूर के लिए मन्नाडे ने ही गाया था.

श्री 420 के बाद आरके फ़िल्म्स की अगली फ़िल्म ‘जागते रहो’ के निर्देशक शम्भु मित्रा थे. इस फ़िल्म की पूरी कहानी एक रात की है. गाँव का एक भोला-भाला आदमी प्यास से बेहाल है और इस उम्मीद में शहर की एक इमारत में घुस जाता है कि कोई उसे पानी पिला देगा. उसे चोर समझ लिया जाता है और पूरी इमारत के लोग इस चोर को पकड़ने की कोशिश में लग जाते हैं. पूरे फ़िल्म में आखिर तक राज कपूर का कोई संवाद नहीं है. आखिर में उनका एक लंबा मोनोलॉग है. ‘जागते रहो’ नर्गिस के साथ राज कपूर की आखिरी फ़िल्म थी. नर्गिस के साथ राज कपूर का रिश्ता बहुत अलग किस्म का था. वे कहते थे, “कृष्णा मेरे बच्चों की माँ हैं और नर्गिस मेरी फ़िल्मों की माँ हैं.” नर्गिस इस फ़िल्म में बस आखिरी दृश्य और गीत ‘जागो मोहन प्यारे’ में आती हैं. इस दृश्य के बारे में राधू करमाकर लिखते हैं, “कैमरा लेंस से देखते समय नर्गिस की आँखों में झिलमिलाते हुए सचमुच के आँसू देखकर मैं चकित रह गया. इस दृश्य को किसी और ने नहीं देखा था. यह दृश्य इतना विचलित कर देने वाला था कि इसे लफ़्ज़ों में बयान करना कठिन है. कैमरे का लैंस कभी झूठ नहीं बोलता, उसमें उनके आँसू साफ़ तौर से दिख रहे थे.”

राधू करमाकर

आरके फ़िल्म्स ने इसके बाद ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ फ़िल्म बनाई जिसे अमर कुमार ने निर्देशित किया. राज कपूर ने इसके बाद ‘फिर सुबह होगी’ (रमेश सहगल), ‘चार दिल चार राहें’ (अब्बास), ‘अनाड़ी’ (ऋषिकेश मुखर्जी) समेत कई फ़िल्मों में काम किया. ‘अनाड़ी’ ऋषिकेश मुखर्जी की बतौर निर्देशक दूसरी ही फ़िल्म थी. इस फ़िल्म में राज कपूर के साथ मुख्य भूमिका में नूतन थीं. संगीतकार और गीतकारों की टीम पुरानी ही थी जो आरके फ़िल्म्स में कई सफल फ़िल्में दे चुकी थी. फ़िल्म के गीत ‘दिल की नज़र से’, ‘वो चाँद खिला वो तारे हँसे’ आदि काफ़ी लोकप्रिय हुए. मुकेश द्वारा गाया गया ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार’ तो राज कपूर के आइकॉनिक गीतों में गिना जाता है. इस गीत की शुरुआत में तेज़ संगीत है, उनका किरदार उमंग में चला जा रहा है. संगीत के इस लंबे टुकड़े को पहली बार सुनते हुए कोई नहीं सोच सकता कि इसके बाद गीत किस तरह शुरू होगा. लेकिन इस टुकड़े के बाद कैमरा सीधे ज़मीन पर पड़े एक कीड़े पर आता है और उनका किरदार अपने पाँव को उस पर पड़ने से रोक लेता है. गीत का संगीत यहाँ से पूरी तरह बदल जाता है. इस तरह के प्रयोग उनकी फ़िल्मों के अन्य गीतों में भी देखने को मिलते हैं.

आरके फ़िल्म्स की आखिरी ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म थी ‘जिस देश में गंगा बहती है’ जो 1961 में रिलीज़ हुई. यह फ़िल्म डाकुओं के आत्मसमर्पण पर केन्द्रित थी. उस समय मध्य भारत के कुछ हिस्सों में डाकुओं का आतंक था. गाँधीवादी नेता विनोभा भावे ने डाकुओं से अपील की थी कि वे सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दें. कुछ डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया भी. यही विचार इस फ़िल्म की प्रेरणा था. फ़िल्म में राज कपूर के अलावा पद्मिनी, प्राण, ललिता पवार मुख्य भूमिका में थे. इस फ़िल्म में भी हसरत-जयपुरी, शैलेन्द्र के गीत थे, शंकर-जयकिशन का संगीत था. फ़िल्म के शीर्षक गीत के साथ ‘ओ बसंती पवन पागल’, ‘हो मैंने प्यार किया’ जैसे गीत बेहद लोकप्रिय हुए. इस फ़िल्म के बाद ‘संगम’ के साथ राज कपूर की रंगीन फ़िल्मों का दौर आया. ‘मेरा नाम जोकर’ उनकी महत्वाकांक्षी फ़िल्म थी जिसकी असफलता से वे बहुत निराश हुए. लेकिन इसके बाद आरके फ़िल्म्स ने ‘बॉबी’, ‘कल, आज और कल’, ‘धरम करम’, ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’, ‘प्रेम रोग’, ‘राम तेरी गंगा मैली’ जैसी सफल फ़िल्में दीं जिनमें से कुछ का निर्देशन उन्होंने खुद किया और कुछ का उनके बेटे रणधीर कपूर ने.

राज कपूर ने अपने साथ काम करने वाले लोगों की प्रतिभा को पहचाना और उनमें से कई को बड़ी ज़िम्मेदारियाँ देते रहे. जैसे ‘जिस देश में गंगा बहती है’ का निर्देशन राधू करमाकर ने किया. कई अभिनेत्रियों ने भी अपने करियर की शुरुआत राज कपूर की फ़िल्मों में या उनके साथ काम करके की. निम्मी की पहली फ़िल्म ‘बरसात’ थी. ‘नील कमल’ में मधुबाला को पहली बार मुख्य भूमिका निभाने का मौका मिला. ‘सपनों का सौदागर’ हेमा मालिनी की पहली फ़िल्म थी जिसमें उनके साथ राज कपूर थे. इसी तरह डिम्पल कपाड़िया, मंदाकिनी, पद्मिनी कोल्हापुरे ने आरके फ़िल्म्स के रास्ते ही फ़िल्मी दुनिया में कदम रखे. ‘मेरा नाम जोकर’ में रूसी बैले डांसर और अभिनेत्री र्याबिन्किना की भूमिका यादगार रही.

राज कपूर को संगीत की शिक्षा बचपन से मिली थी जिससे उनके भीतर संगीत को लेकर एक गंभीर नज़रिया था. शुरुआत की कुछ फ़िल्मों के कुछ गीत उन्होंने खुद भी गाए थे. उनके किरदारों को फ़िल्मों में कई वाद्य जैसे पियानो, वायलिन, ट्रम्पेट, बैगपाइप, अकॉर्डियन, बाँसुरी, सारंगी, बीन, ढोलक और डफली जैसे वाद्यों को बजाते बताया गया. इनमें से कई वाद्य बजाना वे जानते थे जो उनके वाद्य को बजाने के तरीके में देखा जा सकता है. अपनी फ़िल्मों के संगीत से उनका गहरा जुड़ाव होता था, कई बार दखलंदाज़ी की हद तक भी! लता मंगेशकर ने अपने एक संस्मरण में बताया था कि राज कपूर एक गाने में आलाप जोड़ना चाहते थे इसलिए बगैर संगीतकारों से चर्चा किए उन्होंने लता जी से वह आलाप रिकॉर्ड करवा लिया. संगीतकार जयकिशन इससे नाराज़ भी हुए. कुछ मामलों में लता मंगेशकर से भी उनका विवाद हुआ. उनके गाए कुछ गीत उसी दौर के हैं. लेकिन यह उनकी गायकीय प्रतिभा ही थी कि उन गीतों को सुनकर कभी ऐसा महसूस नहीं होता. राज कपूर को रोमानियाई धुन ‘वेव्स ऑफ़ द डेन्यूब’ बेहद पसंद थी. ‘बरसात’ में नायक को इस फ़िल्म में वायलिन पर यह धुन बजाते दिखाया जाता है. यही धुन उनकी अगली कई फ़िल्मों में आई जिसने एक खास तरह का नॉस्टेल्जिया भी पैदा किया. उन्हें ‘संगम’ में अकॉर्डियन पर गीत के बीच यह धुन बजाते दिखाया गया था. ‘मेरा नाम जोकर’ में फ़िल्म के नायक राजू के आखिरी शो के दौरान भी इस धुन का इस्तेमाल हुआ था. ‘बॉबी’ फ़िल्म में जब नायक बॉबी से पहली बार उसके घर पर मिलता है तब भी पार्श्व में यही धुन बजती है. ‘वेव्स ऑफ़ द डेन्यूब’ एक तरह से राज कपूर की फ़िल्मों की खासियत बन गई थी.

(इओसिफ़ इवानोविच की ‘वेव्स ऑफ़ द डेन्यूब’ जिसे राज कपूर ने अपनी कई फ़िल्मों में इस्तेमाल किया)

मुकेश और शैलेन्द्र से राज कपूर का एक अलग तरह का रिश्ता था. मुकेश को वे अपनी आत्मा मानते थे. बतौर गीतकार शैलेन्द्र का वे काफ़ी सम्मान करते थे. शैलेन्द्र को उन्होंने सबसे पहले एक मुशायरे में सुना था और उनकी कविताओं से बहुत प्रभावित हुए. राज कपूर उनसे अपनी फ़िल्मों के गीत लिखवाना चाहते थे. शुरुआत में शैलेन्द्र इसके लिए तैयार नहीं हुए लेकिन बाद में आरके फ़िल्म्स से ऐसे जुड़े कि आखिर तक उसके लिए गीत लिखते रहे. शैलेन्द्र ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म का निर्माण भी खुद करना चाहते थे. राज कपूर फ़िल्म निर्माण के दौरान आने वाली समस्याओं और इससे पैदा होने वाले तनाव को अच्छी तरह जानते थे, शायद इसलिए उन्होंने कभी नहीं चाहा कि शैलेन्द्र निर्माता बनें. लेकिन शैलेन्द्र ने यह दुस्साहस किया और इस फ़िल्म के निर्माण का ज़िम्मा उठाया. बदकिस्मती से इसका तनाव ही उनके निधन का कारण बना. शैलेन्द्र के रूप में राज कपूर ने अपने शब्द भी खो दिए.

विश्व सिनेमा को लेकर राज कपूर के भीतर एक गंभीर दृष्टि थी. वे इतालवी सिनेमा के नव यथार्थवादी आंदोलन से बहुत प्रभावित थे. उन्होंने डिसिका, फ़्रैंक कापरा, डिमिले जैसे निर्देशकों की कई फ़िल्में देखी थीं. ‘बाइसिकल थीव्स’, ‘सिटिज़न केन’ जैसी फ़िल्मों का प्रभाव उनके सिनेमा के मानवीय और तकनीकी दोनों पहलुओं में देखा जा सकता है. उनकी फ़िल्मों में उनका किरदार कभी वैसा नहीं होता था जो मुसीबतों से अकेला भिड़कर सब कुछ ठीक कर दे. उसमें वे तमाम कमज़ोरियाँ, कमियाँ और बुराइयाँ होती थीं जो किसी भी आम आदमी में हो सकती हैं लेकिन भीतर कहीं एक भोलापन भी होता था, एक निश्छल प्रेम होता था. उसके चेहरे पर एक बेचारगी और पीड़ा होती थी. उनके किरदारों ने समाज के संघर्षशील वर्ग का प्रतिनिधित्व किया. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद भारत की राजनीतिक परिस्थितियाँ बदलीं और जन-मानस का सोच भी बदला. नेहरू के ‘गुलाबी समाजवाद’ का असर धीरे-धीरे कम होने लगा. इसका प्रभाव भारतीय सिनेमा पर भी दिखाई दिया. राज कपूर की फ़िल्में भी इससे अछूती नहीं रहीं. हालाँकि उनकी रंगीन फ़िल्मों में भी सामाजिक चिंताएँ बराबर बनी रहीं लेकिन वे अलग तरह से आईं. राज कपूर ने अपनी फ़िल्मों के मनोरंजक होने से कभी समझौता नहीं किया. इसे उन्होंने हमेशा प्राथमिकता दी. लेकिन जीवन मूल्यों को उन्होंने जिस तरह से अपनी फ़िल्मों की कहानी, संगीत और दृश्यों में पिरोया वह भारतीय सिनेमा में उनका बड़ा योगदान था. उन्होंने भारतीय सिनेमा को दुनिया में पहचान दिलाई. अपनी ही फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के संवाद ‘द शो मस्ट गो ऑन’ को उन्होंने अपने जीवन में उतारा और आखिर तक काम करते रहे. एक अच्छा शोमैन यही तो करता है!

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