Movie: Love-All
बैडमिंटन और टेनिस में ज़ीरो पॉइंट को ‘लव’ कहा जाता है। इसका मूल फ़्रेंच शब्द ‘l’oeuf’ है, जिसका मतलब होता है – अंडा। अंडे के शून्य के आकार का होने के कारण इस शब्द ‘लव’ का इस्तेमाल ज़ीरो पॉइंट के लिए किया जाने लगा।
लगभग साल भर पहले थिएटर में रिलीज़ होने के बाद हाल ही में ‘एमेज़ॉन प्राइम वीडियो’ पर आई फ़िल्म ‘लव-ऑल’ खेल और जीवन, दोनों को लेकर है। कुछ समय पहले नेटफ़्लिक्स पर आई वेब सीरीज़ ‘रेलवेमैन’ में के.के. मेनन ने यादगार भूमिका निभाई थी। यह फ़िल्म ‘रेलवेमैन’ के काफ़ी पहले शूट हुई थी और संयोग से इस फ़िल्म में भी वे एक रेलवे कर्मचारी सिद्धार्थ शर्मा की भूमिका में हैं जो अपने तबादले के चलते भोपाल में ट्रांसफ़र होकर आया है। उसके परिवार में पत्नी है और एक बेटा है। भोपाल उसका होमटाउन है जिसे काफ़ी साल पहले वह छोड़ चुका था। लेकिन अपने शहर को लेकर उसकी यादें बहुत अच्छी नहीं हैं।
वह अपने बेटे को खेल से दूर रखना चाहता है। उसकी पत्नी खेल को लेकर उसकी नफ़रत की वजह को नहीं समझ पाती। लेकिन जिस स्कूल में उसे अपने बेटे का दाखिला करवाना है वहाँ बेटे को कोई न कोई खेल खेलना ही है। वह अपने पति से छिपाकर बेटे का नाम बैडमिंटन के लिए लिखवा देती है। बेटा स्वाभाविक रूप से अच्छा खेलने लगता है और एक दिन स्कूल स्तर पर मेडल भी जीत जाता है। सिद्धार्थ के घर के पास ही उसके बचपन के दोस्त वीजू की स्पोर्ट्स की दुकान है जहाँ सिद्धार्थ का बेटा बैडमिंटन की किट खरीदता है और स्कूल से लौटते वक्त वहीं रखकर घर भी आता है ताकि उसके पिता को पता न चले। एक दिन सिद्धार्थ को घर पर उसके बेटे को मिला मेडल दिखाई दे जाता है जो उसकी पत्नी ने छिपाया था। सिद्धार्थ बहुत नाराज़ होता है। सिद्धार्थ की इस नाराज़गी और खेल को लेकर उसकी नफ़रत के पीछे उसके अपने कड़वे अनुभव हैं जिनकी वजह से वह नहीं चाहता कि उसका बेटा भी खेल में अपनी ज़िंदगी ‘ख़राब’ करे।
खेलों को लेकर हमारे यहाँ ढेरों फ़िल्में बनी हैं जिनमें से कई काफ़ी सफल भी रहीं। कई फ़िल्में टीम भावना को लेकर हैं, कई बायोपिक हैं और कई में काल्पनिक कहानी को बहुत रोचक ढंग से दिखाया गया है। ‘लव-ऑल’ की कहानी भी काल्पनिक है लेकिन असल जीवन की कई घटनाओं से प्रेरित है, इसलिए वास्तविक भी है। फ़िल्म के निर्देशक सुधांशु शर्मा खुद बैडमिंटन के राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी रहे हैं इसलिए फ़िल्म में खेल की बारीकियाँ देखने को मिलती हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि कहानी पर खेल को हावी भी नहीं होने दिया गया है। अंत तक एक सहजता बनी रहती है जो दर्शक को क्लाइमैक्स तक ले जाती है।
के.के. मेनन बहुत प्रतिभाशाली अभिनेता हैं। उनकी पिछली कई फ़िल्मों में वे इसे साबित भी कर चुके हैं। खेल-आधारित फ़िल्म होने के बाद भी इसमें उनके लिए अभिनय की बहुत गुंजाइश रखी गई है। किसी भावुक क्षण में उनका कोई शब्द बोलकर अटक जाना और दूसरी तरफ़ देखते हुए संवाद पूरा करना उनके अभिनय की खासियत है। जज़्ब किया हुआ गुस्सा और तकलीफ़ उनकी आँखों में छलकते हैं। सिद्धार्थ के बचपन के दोस्त की भूमिका में सुमित अरोड़ा ने भी बढ़िया अभिनय किया है। खेल में अच्छे होने के बावजूद सफल न हो पाने वाले खिलाड़ियों के भविष्य पर भी फ़िल्म सवाल उठाती है। खिलाड़ियों के चयन में होने वाली राजनीति को भी बहुत साफ़ ढंग से दिखाया गया है।
एक इंटरव्यू में फ़िल्म के निर्देशक सुधांशु ने बताया कि खेल-आधारित फ़िल्मों में कलाकारों का चयन करना बहुत चुनौती भरा काम होता है। इसमें सबसे बड़ा सवाल यह होता है कि एक्टर्स को खेल सिखाया जाए या फिर खिलाड़ियों को लेकर उनसे अभिनय करवाया जाए। इस फ़िल्म के लिए उन्होंने दूसरा रास्ता चुना। शायद यही कारण है कि फ़िल्म में खेल ज़्यादा वास्तविक दिखाई देता है। ऐसे खिलाड़ियों का चयन करना वाकई मुश्किल काम होता है जो अपनी भूमिका में भी फ़िट बैठें और अभिनय भी कर लें। इसके अलावा स्पोर्ट्स शॉट्स को सही ढंग से एडिट करने की चुनौती अपनी जगह है।
फ़िल्म में एक ताज़ापन है। देखते हुए लगता है कि इसे धैर्य से बनाया गया है, बाज़ार का कोई दबाव नहीं है। फ़िल्म के गीत सोनल शर्मा ने लिखे हैं जिन्हें लेखन का लंबा अनुभव है। इसका एक गीत सोनू निगम ने गाया है। कहानी और स्क्रिप्ट में कसावट है जिस पर सुधांशु शर्मा और सोनल शर्मा ने मिलकर काम किया है। संवादों में जीवन मूल्यों की बातें हैं जो बहुत सहज ढंग से आती हैं।
यह फ़िल्म सिर्फ़ बैडमिंटन के बारे में नहीं है, न ही यह किसी खिलाड़ी के चैम्पियन बनने के संघर्ष को लेकर है। यह ‘चैम्पियन’ के सही अर्थों को जीवन में तलाशती है।
अच्छी और सुगठित फ़िल्म समीक्षा। संयोग से यह फ़िल्म दो मित्रो सुधांशु भाई और सोनल जी की मेहनत का परिणाम है। यह भी कि इसके विचार से लेकर ओटीटी पर आने तक पर्दे के पीछे से छन-छन कर ख़बरें मिलती रहीं, इस नाते भी इससे न जाने क्यों एक नाता जुड़ा है। अमेय की इस टिप्पणी में फ़िल्म के बारे में पढ़कर अच्छा लगा। फ़िल्म अंततः एक टीम वर्क है, इस टीम का एक भी कमज़ोर खिलाड़ी बैरबण्ड कर सकता है, जबकि एक मज़बूत खिलाड़ी पार नहीं उतार सकता।
अमेय ने बहुत अच्छी बात कही कि फ़िल्म सिर्फ़ बैडमिंटन के बारे में नहीं है, न ही यह किसी खिलाड़ी के चैम्पियन बनने के संघर्ष को लेकर है। यह ‘चैम्पियन’ के सही अर्थों को जीवन में तलाशती है।
टिप्पणी के लिए बहुत आभार, भाई साहब!
Amey, nice write up. It creates an urge to watch it.
Thanks, Ambuj. The movie is really worth watching.
इस मूवी को कब से देखने की इच्छा थी।आपकी समीक्षा ने इच्छा और तीव्र कर दी।बहुत अच्छी समीक्षा। आज ही देखती हूं।
बहुत आभार, मैडम!